Saturday, August 7, 2021

शुतुर-गर्बा [ क़िस्त -1]

 उर्दू शायरी का एक ऐब : शुतुर-गर्बा [ क़िस्त -1]


[ कल इस मंच पर अनिशा जी ने उमेश मौर्या जी के एक पोस्ट पर -शायरी के एक ऐब "शुतुर-गर्बा ’का ज़िक्र किया था और मौर्या जी ने

पूछा था कि यह क्या होता है ?

वैसे मुझे लगता है कि आप में से बहुत से लोग इस ऐब के बारे में जानते होंगे। और जो नहीं जानते है उनके लिए लिख रहा हूँ।

हालाँकि इस ऐब पर मैने अपने ब्लाग " उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 67 पर विस्तार से चर्चा किया है

डा0 शम्शुर्रहमान फ़ारुक़ीसाहब ने अपनी क़िताब " अरूज़ आहंग और बयान’ में लिखा है -

शे’र में ’ग़लती’ और”ऐब’ दो अलग अलग चीज़ हैं। ग़लती महज़ ग़लती है ।न हो तो अच्छा ।

मगर इसकी मौजूदगी में भी शे’र अच्छा हो सकता है ।जब कि ’ऐब’ एक ख़राबी है और शे’र की मुस्तकिल [स्थायी]

ख़राबी का बाइस [कारण] हो सकता है ।

उर्दू शायरी [ शे’र ] में मौलाना हसरत मोहानी ने जिन तमाम ऎब का ज़िक्र किया है उसमे से एक ऐब " शुतुर्गर्बा " भी शामिल है ।

शुतुर्गर्बा का लग़वी [शब्द कोशीय ] अर्थ "ऊँट-बिल्ली" है यानी शायरी के सन्दर्भ में यह ’बेमेल" प्रयोग के अर्थ में किया जाता है

[शुतुर= ऊँट और गर्बा= बिल्ली । इसी ’शुतुर’ से शुतुरमुर्ग भी बना है । मुर्ग= पक्षी । वह पक्षी जो पक्षियों में ऊँट जैसा लगता हो या दिखता हो--]

ख़ैर

अगर आप हिन्दी के व्याकरण से थोड़ा-बह्त परिचित हों तो आप जानते हैं

उत्तम पुरुष सर्वनाम                       -मैं-

                             एकवचन                      बहुवचन

मूल रूप                       मैं                          हम

तिर्यक रूप                   मुझ                         हम

कर्म-सम्प्रदान                 मुझे                       हमें

संबंध               मेरा,मेरे,मेरी                  हमारा.हमारे.हमारी

-----    -------

मध्यम पुरुष सर्वनाम                 -’तू’

                                  एकवचन                    बहुवचन

मूल रूप                        तू                              तुम

तिर्यक रूप                   तुझ                             तुम

कर्म-सम्प्रदान              तुझे                            तुम्हें

संबंध                 तेरा-तेरे--तेरी                           तुम्हारे-तुम्हारे-तुम्हारी

---- ---- ---

अन्य पुरुष सर्वनाम         -’वह’-

                                एकवचन                       बहुवचन

मूल रूप                        वह                             वे

तिर्यक रूप                   उस                              उन

कर्म-सम्प्रदान                उसे                           उन्हें

संबंध                       उसका-उसकी-उसके      उनका-उनके-उनकी

----   ------

अन्य पुरुष सर्वनाम-यह- 

                                 एकवचन                           बहुवचन

मूल रूप                         यह                               ये

तिर्यक रूप                    इस                                इन

कर्म-सम्प्रदान                  इसे                            इन्हें

संबंध इसका-           इसकी-इसके            इनका-इनकी-इनके

कभी कभी शायरी में बह्र और वज़न की माँग पर हम लोग -यह- और -वह- की जगह -ये- और -वो- वे- का भी प्रयोग ’एकवचन’

के रूप में करते है -जो भाव के सन्दर्भ के अनुसार सही होता है

शे’र में एक वचन-बहुवचन का पास [ख़याल] ्रखना चाहिए । व्याकरण सम्मत होना चाहिए।यानी शे’र में सर्वनाम की एवं तत्संबंधित क्रियाओं में "एक रूपता" बनी रहनी चाहिए

ख़ैर यह कोई बहुत बड़ा ऐब नहीं है ,लेकिन हर शायर को यथा संभव बचना चाहिए। आखिर ग़ज़ल तहज़ीब और तमीज की ज़ुबान जो है ।यह ऐब अनायास ही आ जाता है भावनाओं के प्रवाह में । मगर नज़र-ए-सानी पर यह पकड़ में आ जाता है

आयेगा क्यों नहींं। बेमेल शादी शुदा जोड़ी [कद-कामत के लिहाज़ से] जल्द ही नज़र में आ जाता है चाहे आपसी राब्ता मिसरा का या उनका जितना भी प्र्गाढ़ हो। हा हा हा हा ।

दौर-ए-हाज़िर [वर्तमान समय ] में नए शायरों के कलाम में यह दोष [ऐब] आम पाया जाता है । अजीमुश्शान शायर [ प्रतिष्ठित शायर] के शे’र भी ऐसे

ऐब से अछूते नहीं रहे हैं। हालाँ कि ऐसे उदाहरण इन लोगों के कलाम में बहुत कम इक्का-दुक्का ही मिलते है ।आटे में नमक के बराबर

कभी कभी यह दोष मकामी ज़ुबान के प्रचलन से भी हो जाता है । जैसे पूर्वांचल [ लखनऊ के आस पास नज़ाकत और नफ़ासत की जुबान में ] आप आइए --आप जाइए--आप बैठिए बोलते है

जब कि दिल्ली के आसपास --आप आओ---आप जाओ -आप बैठॊ --बोलते है । जो शायरी में झलक जाता है । नेक-नीयती के साथ ही बोली जाती है ।

आज इतना ही । अगले क़िस्त में कुछ मशहूर शायरो के कलाम में यह ऐब -उदाहरण के तौर पर पेश करेंगे।क्रमश:---

इस मंच के तमाम असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कुछ ग़लतबयानी हो गई हो तो ज़रूर निशानदिही फ़रमाएँ कि आइन्दा मैं खुद को दुरुस्त कर सकूं~।

सादर

-आनन्द.पाठक-


एक ऐब : शुतुर-गर्बा

 



उर्दू शायरी का एक ऐब : शुतुर-गर्बा [ क़िस्त -2 अन्तिम]


पिछली क़िस्त में "शुतुर-गर्बा" ऐब पर बात चल रही थी । उसी बात को आगे बढ़ाते हुए------

अगर आप ने किसी शे’र में -मैं - शब्द का प्रयोग किया है तो उसी  शे’र में  फिर-- मैं --मेरा-मेरी--मेरे--मुझे--मुझको-्शब्द लाना लज़िम हो जायेगा।

यानी 

-मैं --मेरा-मेरी--मेरे--मुझे--मुझको-मुझ से --मुझ पर --आदि

उसी प्रकार 

हम-हमें---हमारा--हमारी -हम से--हम पर--आदि

उसी प्रकार 

तुम--तुम्हें--तुम्हारा--तुम को --तुम से --तुम पर --आदि

उसी प्रकार 

वह--उसे--उसको --उस से--उसपर --

वो-- उन्हें उनको--उनसे--उन पर ---आदि आदि


यह हिंदी व्याकरण का साधारण नियम है ।। अगर ऐसा नहीं किया  तो ’शुतुर-गर्बा" का ऐब पैदा हो जाएगा।

आप ने यह फ़िल्मी गाना [ मेरे सनम ] ज़रूर सुना होगा---


जाइए आप कहाँ जायेंगे -ये नज़र लौट के फिर आएगी

दूर तक आप के पीछे पीछे--मेरी आवाज़ चली जाएगी


यह गाना बिलकुल दुरुस्त है आहंग में है--कोई ऐब नहीं।

अब इस गाने को यूँ कर देता हूँ-

जाइए आप कहाँ जाओगे -ये नज़र लौट के फिर आएगी

आहंग अब भी बरक़रार है लय अब भी सही है .वज़न अब भी वही है । मगर---लहज़ा ठीक नहीं है --शुतुर गर्बा -का ऐब आ गया। कारण कि

इस बदली हुई  लाइन में आशा पारेख ने एक बार तो  हीरो  को [आप] जाइए कह रही है और तुरन्त बाद [ तुम ] जाओगे कह रही है । यह लहज़ा ठीक नही है 

इससे शुतुर गर्बा का ऐब पैदा हो जायेगा जो ज़ायज़ नहीं है ।


शे’र में कोई ज़रूरी नहीं कि आप हमेशा--मैं--तुम--वह- आप  प्रत्यक्ष रूप से लिखे ही लिखे---वह शे’र का लहज़ा बता देगा कि आप ने क्या संबोधित किया है ,कि आप क्या कहना चाह्ते हैं ।

अब कुछ शायरॊ के 1-2  कलाम लेते है ।

ग़ालिब का एक मशहूर शे’र है -आप ने भी सुना होगा।


मैने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन

ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होने तक


बज़ाहिर पहले मिसरे में -मैने-- और दूसरे मिसरे में --हम-- ????  शुतुर गर्बा तो है ।

ग़ालिब उस्ताद शायर थे।उन से यह तवक़्को [ उमीद] तो नहीं की जा सकती है । तो लोगों ने कहा-कि इसका सही वर्जन यूँ है


हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन

ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होने तक


अब यह ऐब ग़ायब हो गया । अब ग़ालिब के इस शे’र का सही वर्जन क्या है--हमें तो नहीं मालूम मगर दूसरा वाला शे’र सही लग रहा है ।

 हो सकता है कि ग़ालिब के किसी मुस्तनद दीवान [प्रामाणिक दीवान ] में शायद यही  सही रूप  लिखा हो ।”

एक दूसरा उदाहरण लेते हैं 

’मोमिन’ की एक मशहूर ग़ज़ल है --जिसे आप सभी ने सुना होगा । ---तुम्हें याद हो कि न याद हो ---। यह पूरा जुमला ही रदीफ़ है । 

यदि आप ने इस ग़ज़ल के मक़्ता पर कभी ध्यान दिया हो तो मक़्ता यूँ है


जिसे आप कहते थे आशना,जिसे आप कहते थे बावफ़ा

मैं वही हूँ मोमिन-ए-मुब्तिला ,तुम्हें याद हो कि न याद हो 

-मोमिन-

यह शे’र बह्र-ए-कामिल की एक खूबसूरत मिसाल है । इस शे’र में भी बह्र और वज़न के हिसाब से कोई नुक़्स नहीं है 

पहले मिसरा में ’आप’ और दूसरे मिसरा में ’तुम्हें’ --यह शुतुरगर्बा का ऐब है 

ग़ालिब का ही एक शे’र और लेते हैं 

वादा आने का वफ़ा कीजिए ,यह क्या अन्दाज़ है 

तुम्हें क्या सौपनी है अपने घर की दरबानी मुझे ?

-ग़ालिब-

मिसरा उला  मे "कीजिए" से ’आप’ का बोध हो रहा है जब कि मिसरा सानी में ’तुम्हें’ -कह दिया

यहअसंगत प्रयोग ? जी हां ,यहाँ शुतुर गर्बा का ऐब है ।


 एक मीर तक़ी मीर का शे’र देखते हैं


ग़लत था आप से  ग़ाफ़िल गुज़रना

न समझे हम कि इस क़ालिब में तू था 

-मीर तक़ी मीर-


वही ऐब । पहले मिसरे में ’आप’ और दूसरे मिसरे में ’तू’ " ग़लत है ।ऐब है॥शुतुरगर्बा ऐब।

चलते चलते एक शे’र ’आतिश’ का भी देख लेते हैं


फ़स्ल-ए-बहार आई ’पीओ" सूफ़ियों शराब

बस हो चुकी नमाज़ मुसल्ला उठाइए 

-आतिश-


[ मुसल्ला--वह दरी या चटाई जिसपर बैठ कर मुसलमान नमाज़ पढ़ते ...हमारे यहाँ उसे ’आसनी’ कहते हैं।

बज़ाहिर ,यह लहज़ा ठीक नहीं है।


 अगर आप क़दीम [पुराने ] शो’अरा के कलाम इस नुक़्त-ए-नज़र से देखेंगे तो  ऐसे ऐब आप को भी नज़र आयेंगे। नए शायरों में तो ख़ैर नज़र आते ही हैं।

किसी का ’ऐब’ देखना कोई अच्छी बात तो नहीं ।मगर हाँ -- ऐसे दोष को देख कर आप अपने शे’र-ओ-सुखन में इस दोष से बच सकते हैं

और ख़ास कर नए  ,शायरों से यह निवेदन है कि अपने कलाम में  ऐसे ’ऐब’ से बच सकें।

यह कोई दलील नही ,न ही सनद है,  न ही लाइसेन्स है हमारे आप के लिए । ऐब ऐब है--चाहे हम करें आप करें या कोई और करे।


जिन के आँगन में अमीरी का शजर लगता है

उनका हर ऐब ज़माने को हुनर लगता  है 

---अंजुम रहबर --


बस "अमीरी " को आप "शुहरत" कर के दुबारा पढ़े--बात साफ़ हो जायेगी।


अब आप बताएं -कि इस शे’र के मिसरा सानी में --उसका हर ऐब ज़माने को हुनर लगता है ---पढ़ सकते है ? अगर नहीं तो क्यॊं नहीं ?


इस मंच के तमाम असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कुछ ग़लतबयानी हो गई हो तो ज़रूर निशानदिही फ़रमाएँ कि आइन्दा मैं खुद को दुरुस्त कर सकूं~।

सादर

-आनन्द.पाठक-


Thursday, July 22, 2021

कुछ मात्राओं के साथ सफर

 दोस्तो मात्रा गणना के भी कुछ नियम हमें याद रखने की ज़रूरत है ।

कुछ शब्द ऐसे होते हैं जी हमेशा हमें दुविधा में डाले रखते हैं । कुछ तो हमारी ग़ज़लों को ही बे-बह्र कर देती है । मैं यहाँ सिर्फ उन्हीं मूलभूत शब्दों का ही ज़िक्र करूँगा ।

ये नियम सिर्फ ग़ज़ल विद्या का ही स्रोत हैं हालांकि हिंदी छंद विद्या की मात्रा गणना से इसका अलग ही अस्तित्व होता है ।

अमूमन किसी शब्द में दो 'एक मात्रिक' व्यंजन हैं तो उच्चारण में दोनों  जुड़ शाश्वत दो मात्रिक दीर्घ बन जाते हैं । जैसे हम (ह+म) हम-2 ऐसे दो मात्रिक शाश्वत दीर्घ होते हैं । जिनको ज़रूरत के अनुसार 1  1 अथवा 1 नहीं किया जा सकता । जैसे-

पल,खल, घर, सम, दम आदि शाश्वत दो मात्रिक हैं।

शाश्वत का मतलब जो बदला न जा सके ।

शाश्वत दीर्घ अर्थात 2 है तो उसे अलग अलग दो लघु मात्रा (1 1)नही गिना जा सकता ।

मगर जिस शब्द के उच्चारण में दोनों अक्षर अलग अलग उच्चारित होंगे वहां ऐसा नही होगा ।

वहां दोनो लघु अलग अलग उच्चारित होंगे ।जैसे:

असमय----अ/स/मय

अ1  स1 मय2---/112

क्योंकि इनका उच्चारण भी अलग अलग होता है ।

असमय को 22  नहीं किया ना सकता ।

अगर 22 करेंगे तो उच्चारण अस्मय हो जाएगा ।

एक औऱ उदाहरण;-

हमसफ़रों ----2112

अलग अलग उच्चारण होगा तो भी

सुमधुर ---सु/म/धुर। 112

सुविचार---1121

गिरी---1 1

सुधि---1 1

लेकिन अरूज़ के वक़्त कुछ शब्दों में छूट भी ले लेते हैं ।

जैसे--सुधि 

सुधि के कंगन खनक रहे हैं ।

यहां सुधि को दो मात्रिक माना गया है ।

हमसफरों को भी आजकल 222 भी मान लिया जाता है ।


आदि आदि




Friday, June 4, 2021

तकती: तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा, तेरे सामने मेरा हाल है

 बहुत ही मुश्किल औऱ बेहतरीन बह्र । सीखने वालों को काफी मदद मिल सकती है इसे अपनी कलम में ज़रूर उतारनी चाहिए ।

★★★★★★★★★★★★★★

बहरे कामिल मुसम्मन सालिम

11212 11212 11212 11212

मेरी पसंदीदा बह्र औऱ गीत ।

★★★★★★★★★★★★★★

फ़िल्म आखरी दांव का जिसके गीतकार मजरुह सुलतानपुरी, गाया है रफ़ी साहिब ने, संगीत दिया है मदन मोहन जी ने । 

◆◆◆◆

बोल हैं::


तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा, तेरे सामने मेरा हाल है

तेरी एक निगाह की बात है, मेरी जिंदगी का सवाल है


मेरी हर खुशी तेरे दम से है, मेरी जिंदगी तेरे गम से है

तेरे दर्द से रहे बेख़बर, मेरे दिल की कब ये मजाल है


तेरे हुस्न पर है मेरी नज़र, मुझे सुबह शाम की क्या खबर

मेरी शाम है तेरी जुस्तजू, मेरी सुबह तेरा ख़याल है


मेरे दिल जिगर में समा भी जा, रहे क्यो नज़र का भी फासला

के तेरे बगैर तो जान-ए-जां, मुझे जिंदगी भी मुहाल है


◆◆◆◆


इसी बह्र पर दूसरा गीत::


मैं ख़याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है 


सर-ए-आईना मिरा अक्स है पस-ए-आईना कोई और है 

◆◆◆◆

Thursday, September 10, 2020

तकती::जाने क्या ढूंढती रहती है ये आँखे मुझमें

 एक बेहतरीन बह्र*****

बहरे रमल मुसम्मन मखबून महज़ूफ मकतुअ

पर फ़िल्म शोला और शबनम का एक ख़ूबसूरत नग़मा

गायक हैं मुहम्मद रफ़ी गीतकार कैफ़ी आज़मी

संगीतकार मोहम्मद जहूर खय्याम


तकती


2122 1122 1122 22

🔳🔳🔳🔳🔳🔳🔳🔳


जाने क्या ढूंढती रहती है ये आँखे मुझमें,

राख के ढेर में शोला है न चिंगारी है ।


अब न वो प्यार न उसकी यादें बाकी,

आज यूँ दिल में लगी कुछ न रहा कुछ न बचा ।

जिसकी तस्वीर निगाहों में लिए बैठी हो,

मै वो दिलदार नहीं उसकी हूँ खामोश चिता ।


ज़िन्दगी हँस के न गुज़रती तो बहुत अच्छा था,

खैर हंस के न सही रो के गुज़र जायेगी ।

राख बर्बाद मोहब्बत की बचा रखी है,

बार बार इसको जो छेड़ा तो बिखर जायेगी ।


आरज़ू जुर्म वफ़ा जुर्म तमन्ना है गुनाह,

ये वो दुनिया है जहां प्यार नहीं हो सकता ।

कैसे बाज़ार का दस्तूर तुम्हें समझाऊं,

बिक गया जो वो खरीदार नहीं हो सकता ।

बिक गया जो वो खरीदार नहीं हो सकता ।


🔳🔳🔳🔳🔳🔳🔳

Monday, September 7, 2020

तकती:: ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा

बहरे हज़ज मसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ मक़सूर महज़ूफ़:
*********************
तकती;-

22 11 22 11 22 11 2 2 (1)
या यूँ 22 11 22 11 22 11 22

🔳🔳🔳🔳🔳🔳🔳🔳
दोस्तो "तकती" करने की कड़ी में आज मैं एक बहुत ही खूबसूरत नग़मा लेकर आया हूँ । ये एक खास और मुश्किल बह्र  है । बहुत कम शायर हैं जिन्होंने इस बह्र को इस्तेमाल किया है । साहिर लुधियानवी जी उनमें से एक ऐसा व्यक्तित्व है जिनके अल्फासों की खनक कई दशकों तक हर ज़हन में याद बन उफनती रहेगी । दिल को छू लेने वाला ये नग़मा आज भी गुनगुनाने को दिल चाहता है ।
1965 में आई फ़िल्म, काजल के लिए साहिर जी का लिखा ये गीत, रवि जी के संगीत से सजा और मोहम्मद रफ़ी जी ने इस गीत को खूब निभाया है । इस गीत को मुझे उम्मीद है आप आज ही खुद भी  सुनना चाहेंगे  ।

गीत के बोल हैं :-
2211 2211 2211 22
👇🏼
ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा
इस रात की तक़दीर सँवर जाए तो अच्छा
ये ज़ुल्फ़ अगर...

जिस तरह से थोड़ी-सी तेरे साथ कटी है
बाक़ी भी उसी तरह गुज़र जाए तो अच्छा
ये ज़ुल्फ़ अगर...

दुनिया की निगाहों में भला क्या है बुरा क्या
ये बोझ अगर दिल से उतर जाए तो अच्छा
ये ज़ुल्फ़ अगर...

वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बरबाद किया है
इल्ज़ाम किसी और के सर जाए तो अच्छा
ये ज़ुल्फ़ अगर...
🔳🔳🔳🔳🔳🔳🔳🔳
इसी बह्र पर कुछ और शायरों ने भी कहा है ।
👇🏼
गो हाथ मे जुंबिश नहीं हाथों मे तो दम है
रहने दो अभी साग़रो-मीना मेरे आगे.(गालिब)

रंज़िश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिए से मुझे छोड़के जाने के लिए आ.( फ़राज़)

अशआर मेरे यूँ तो ज़माने के लिये हैं
कुछ शे'र फ़कत तुमको सुनाने के लिए हैं.( जां निसार अखतर)

🙏🙏

Sunday, August 30, 2020

तकती-देखती ही रहो आज दर्पण न तुम

मेरे पसंदीदा गायक #मुकेश जी ,और उस पर लीरिक्स गोपाल दास नीरज जी के...सोने पे जैसे सुहागा ।
इस क्रम में आज फिर एक नायाब नगमा लेकर आया हूँ। आइये उसकी  बह्र ऒर तकती देखें ।  1965 में रिलीज हुई फिल्म- ‘नई उमर की नई फसल’ के लिए नीरज जी के ख्यालों से निकला यह गीत शेयर कर रहा हूँ, जिसे मुकेश जी ने संगीतकार रोशन जी के संगीत निर्देशन में, बेहद खूबसूरत तरीके से गाया, जिसमें गीतकार नीरज जी ने सौंदर्य को बहुत सुंदर तरीके से इस गीत में पिरोया है ऒर मुकेश जी ने अपनी खूबसूरत आवाज़ में इसे निभाया है :---

★★★★★★★★★
बह्र-
बहरे-मुतदारिक मसम्मन सालिम
◆◆◆◆◆◆◆◆◆
तकती:-
212 212 212 212
 ◆◆◆◆◆◆◆◆◆

देखती ही रहो आज दर्पण न तुम
प्यार का ये महूरत निकल जाएगा, निकल जाएगा

साँस की तो बहुत तेज़ रफ़्तार है
और छोटी बहुत है मिलन की घड़ी
गूँथते गूँथते ये घटा साँवरी
बुझ न जाये कहीं रूप की फुलझड़ी
चूड़ियाँ ही न तुम–
चूड़ियाँ ही न तुम खनखनाती रहो
ये शरमसार मौसम बदल जायेगा, बदल जायेगा।

सुर्ख होंठों पे उफ़ ये हँसी मदभरी
जैसे शबनम अँगारों की मेहमान हो
जादू बुनती हुई ये नशीली नज़र
देख ले तो ख़ुदाई परेशान हो
मुस्कुराओ न ऐसे —
मुस्कुराओ न ऐसे चुराकर नज़र
आइना देख सूरत मचल जायेगा, मचल जायेगा।

चाल ऐसी है मदहोश मस्ती भरी
नींद सूरज सितारों को आने लगे
इतने नाज़ुक क़दम चूम पाये अगर
सोते सोते बियाबान गाने लगे
मत महावर रचाओ–
मत महावर रचाओ बहुत पाँव में
फ़र्श का मरमरी दिल दहल जायेगा, दहल जायेगा


देखती ही रहो आज दर्पण न तुम।
★★★★★★★★★★

हर्ष महाजन