Monday, September 7, 2020

तकती:: ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा

बहरे हज़ज मसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ मक़सूर महज़ूफ़:
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तकती;-

22 11 22 11 22 11 2 2 (1)
या यूँ 22 11 22 11 22 11 22

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दोस्तो "तकती" करने की कड़ी में आज मैं एक बहुत ही खूबसूरत नग़मा लेकर आया हूँ । ये एक खास और मुश्किल बह्र  है । बहुत कम शायर हैं जिन्होंने इस बह्र को इस्तेमाल किया है । साहिर लुधियानवी जी उनमें से एक ऐसा व्यक्तित्व है जिनके अल्फासों की खनक कई दशकों तक हर ज़हन में याद बन उफनती रहेगी । दिल को छू लेने वाला ये नग़मा आज भी गुनगुनाने को दिल चाहता है ।
1965 में आई फ़िल्म, काजल के लिए साहिर जी का लिखा ये गीत, रवि जी के संगीत से सजा और मोहम्मद रफ़ी जी ने इस गीत को खूब निभाया है । इस गीत को मुझे उम्मीद है आप आज ही खुद भी  सुनना चाहेंगे  ।

गीत के बोल हैं :-
2211 2211 2211 22
👇🏼
ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा
इस रात की तक़दीर सँवर जाए तो अच्छा
ये ज़ुल्फ़ अगर...

जिस तरह से थोड़ी-सी तेरे साथ कटी है
बाक़ी भी उसी तरह गुज़र जाए तो अच्छा
ये ज़ुल्फ़ अगर...

दुनिया की निगाहों में भला क्या है बुरा क्या
ये बोझ अगर दिल से उतर जाए तो अच्छा
ये ज़ुल्फ़ अगर...

वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बरबाद किया है
इल्ज़ाम किसी और के सर जाए तो अच्छा
ये ज़ुल्फ़ अगर...
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इसी बह्र पर कुछ और शायरों ने भी कहा है ।
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गो हाथ मे जुंबिश नहीं हाथों मे तो दम है
रहने दो अभी साग़रो-मीना मेरे आगे.(गालिब)

रंज़िश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिए से मुझे छोड़के जाने के लिए आ.( फ़राज़)

अशआर मेरे यूँ तो ज़माने के लिये हैं
कुछ शे'र फ़कत तुमको सुनाने के लिए हैं.( जां निसार अखतर)

🙏🙏

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